बासु चटर्जी द्वारा निर्देशित 1986 की फ़िल्म “Ek Ruka Hua Faisla” एक बेहतरीन कोर्टरूम ड्रामा है, जिसे 1957 की अमेरिकी फिल्म “12 Angry Men” से प्रेरित होकर बनाया गया था। यह फिल्म भारतीय सिनेमा में एक खास मुकाम रखती है, जो न केवल कोर्टरूम ड्रामा का अनोखा रूप प्रस्तुत करती है, बल्कि समाज में फैली धारणाओं और पूर्वाग्रहों पर भी सवाल उठाती है।
इस फ़िल्म का निर्देशन बासु चटर्जी ने किया, जबकि इसका सह-लेखन रणजीत कपूर ने किया था। रणजीत कपूर (अनु कपूर के बड़े भाई) ने पहले इस कहानी को नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) के अभिनेताओं के साथ दिल्ली में एक नाटक के रूप में मंचित किया। जब बासु चटर्जी ने इसे मुंबई के पृथ्वी थिएटर में देखा, तो उन्होंने इसे फ़िल्म में बदलने का निर्णय लिया। पूरा शूट केवल एक हफ्ते में जुहू के एक बंगले में पूरा कर लिया गया था, और सभी कलाकारों को पहली फ़िल्म के रूप में 5000 रुपये का पारिश्रमिक मिला।
कहानी और किरदारों का अनूठा चित्रण
फ़िल्म की कहानी एक 18 साल के आरोपी की सज़ा पर विचार कर रही 12 लोगों की जूरी पर आधारित है। कहानी की शुरुआत में 11 लोग आरोपी को दोषी मानते हैं, जबकि सिर्फ एक (जूरर नंबर 8) उसके खिलाफ खड़ा होता है। फ़िल्म इस प्रक्रिया को दिखाती है कि कैसे एक आदमी अपने तर्कों और धैर्य से दूसरों की सोच बदलने में सक्षम होता है। किरदारों के विविध व्यक्तित्व और उनकी धारणाएं इस जटिल प्रक्रिया को और भी दिलचस्प बनाती हैं।
फ़िल्म में के.के. रैना, पंकज कपूर, एम.के. रैना, अनु कपूर, अज़ीज़ क़ुरैशी, एस.एम. ज़हीर और अन्य थिएटर कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है। ख़ासकर के.के. रैना और पंकज कपूर की अदाकारी फ़िल्म की ताकत को बढ़ाती है।
सिर्फ एक कमरे में बंधी कहानी
Ek Ruka Hua Faisla की खासियत यह है कि पूरी फ़िल्म एक कमरे में ही सेट है। इस मिनिमलिस्टिक सेटिंग के बावजूद, फ़िल्म की पटकथा, संवाद और किरदार दर्शकों को बांधे रखते हैं। फ़िल्म यह सिखाती है कि कैसे सवालों की एक तार्किक प्रक्रिया लोगों की धारणाओं को बदल सकती है। यह फ़िल्म मानव व्यवहार, नेतृत्व शैली और निर्णय प्रक्रिया पर एक केस स्टडी के रूप में भी देखी जाती है।
बासु चटर्जी की सादगी भरी सिनेमा शैली
बासु चटर्जी का जन्म अजमेर, राजस्थान में हुआ था, और उन्होंने अपने करियर की शुरुआत कार्टूनिस्ट के रूप में की। बाद में उन्होंने फ़िल्म निर्देशन में कदम रखा और सारा आकाश (1969) के साथ अपनी यात्रा शुरू की। चटर्जी ने ‘मिडिल-ऑफ-द-रोड’ सिनेमा की अवधारणा को नई पहचान दी, जिसमें रजनीगंधा (1974), चोट सी बात (1976) और खट्टा-मीठा (1978) जैसी सादगी भरी, पर दिल को छू लेने वाली फिल्में शामिल थीं।
Nihal Dev Dutta