अंद्रेई तारकोवस्की की ‘मिरर’ का जादू
सिनेमा के महान कवि अंद्रेई तारकोवस्की की 1975 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘मिरर’ आज भी दर्शकों के दिलों में उतनी ही गहराई से बसी हुई है, जितनी पहली बार देखे जाने पर थी। यह फिल्म एक ऐसा अनुभव है, जिसे दर्शक बार-बार देखना चाहते हैं, और हर बार इसमें कुछ नया खोजते हैं।
‘मिरर’ केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक ऐसी कविता है, जो स्मृतियों, स्वप्नों और वर्तमान की बेचैनियों को अपने में समेटे हुए है। फिल्म की गैर-रेखीय संरचना दर्शकों को अपने भीतर समाहित कर लेती है। इसमें छोटी-छोटी बातों की अहमियत दिखाई गई है, जैसे एक लड़की के खून से सने होंठ, एक माँ की आंखों से बहते आंसू, या मेज़ पर बनी जल-धारियां। ये साधारण से दृश्य तारकोवस्की के कवित्वपूर्ण दृष्टिकोण के कारण ब्रह्मांडीय विस्तार का रूप ले लेते हैं।
फिल्म में प्रतीत होता है कि रोजमर्रा की वस्तुएं, जो जाँ पॉल सार्त्र को घृणा का अनुभव कराती थीं, वही तारकोवस्की के लिए प्रेम और सौंदर्य का प्रतीक बन जाती हैं। जब एक बीमार व्यक्ति अपनी यादों में खोया होता है, या जब एक माँ अपने बीते हुए दिनों को याद करती है, तब ‘मिरर’ उनके जीवन की कहानी को कविता की तरह प्रस्तुत करती है।
तारकोवस्की की यह कृति मानवीय भावनाओं की गहराई को छूती है। इसमें हर दृश्य एक कलाकृति की तरह महसूस होता है। आग की लपटों में जलता घर हो, या सीधे कैमरे में देखती एक महिला—हर पल ऐसा लगता है मानो जीवन का सच सामने आ गया हो।
आज, जब हॉलीवुड के उत्पादन खर्चों और भव्य सेटों पर चर्चा होती है, ‘मिरर’ एक ऐसा सिनेमा बनकर सामने आती है, जो मानवीय संवेदनाओं से जुड़ा हुआ है। यह फिल्म सिखाती है कि सिनेमा केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि एक दार्शनिक अनुभव भी हो सकता है।
‘मिरर’ के बारे में सोचते हुए यही सवाल बार-बार आता है कि तारकोवस्की का वह जादुई स्पर्श क्या है, जो हर बार नई अनुभूति कराता है। उनके इस रहस्य का उत्तर आज भी किसी के पास नहीं है। परंतु उनकी यह फिल्म दर्शकों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी, जैसे एक प्रेमिका का कोमल स्पर्श।
Nihal Dev Dutta