रित्विक घटक की आत्मा और बंगाल की पुकार
भारतीय सिनेमा के महान निर्देशक रित्विक घटक की कालजयी कृति ‘मेघे ढाका तारा’ न केवल सिनेमा की भाषा में क्रांति लाई बल्कि बंगाल के सांस्कृतिक और भावनात्मक संकट को भी परिलक्षित किया। यह फिल्म नायिका नीता की संघर्षपूर्ण कहानी के जरिए बंगाल के विभाजन की त्रासदी को दर्शाती है, लेकिन एक संवाद ऐसा भी है जो दर्शकों को निर्देशक के निजी जीवन और सामाजिक वास्तविकताओं की गहराई में झाँकने का मौका देता है।
फिल्म में दस मिनट के भीतर एक संवाद आता है, जहाँ नीता अपने भाई शंकर को “जीनियस” कहती है। इस पर शंकर जवाब देता है, “काश बनशी दत्ता समझ पाता कि मैं कितना बड़ा जीनियस हूँ।” यह संवाद सुनने में हल्का हास्यपूर्ण प्रतीत होता है, लेकिन गहरी पड़ताल पर यह रित्विक घटक के निजी जीवन के दर्द और संघर्ष को उजागर करता है।
रित्विक घटक, जो स्वयं अपनी प्रतिभा के लिए समाज द्वारा उपेक्षित रहे, ने इस संवाद के माध्यम से अपनी पीड़ा को व्यक्त किया है। शंकर का संघर्ष असल में घटक का ही संघर्ष है, और नीता बंगाल का प्रतीक। विभाजन के बाद उपेक्षित बंगाल की स्थिति को घटक ने नीता के माध्यम से जीवंत किया।
संवाद और सामाजिक सच्चाई
यह संवाद सिर्फ व्यक्तिगत संघर्ष की कहानी नहीं है, बल्कि समाज के उन “बनशी दत्ताओं” की ओर इशारा करता है, जो तब तक किसी प्रतिभा को नहीं पहचानते जब तक वह अपनी सफलता का प्रमाण न दे। यह उस कड़वे सच को दर्शाता है कि समाज में जीनियस की कद्र अक्सर उसके संघर्षों के बाद होती है।
फिल्म के अंत में, जब शंकर लौटता है और पड़ोसियों को अपनी कमाई बताता है, यह दृश्य निर्देशक की अधूरी इच्छाओं को उजागर करता है। वुडी एलेन के शब्दों में, “कलाकार अपने जीवन में जो देखना चाहते हैं, उसे कला में दिखाते हैं।”
बंगाल की पुकार
फिल्म का सबसे चर्चित संवाद, “मैं जीना चाहती थी, दादा। मैं जीने से बहुत प्यार करती हूँ,” न केवल नीता की व्यक्तिगत त्रासदी बल्कि विभाजन के बाद के बंगाल की सांस्कृतिक और आर्थिक दुर्दशा का प्रतीक है। फिल्म के अंत में, जब बनशी दत्ता कहता है, “अब तो कोई तुम्हारी बहन को याद भी नहीं करता,” यह संवाद विभाजन के दर्द और बंगाल की खोई हुई पहचान की गूंज बन जाता है।
रित्विक घटक की यह फिल्म आज भी न केवल सिनेमा के विद्यार्थियों बल्कि हर संवेदनशील दर्शक के लिए प्रेरणा और आत्मविश्लेषण का विषय बनी हुई है।
Nihal Dev Dutta