1975: हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम वर्ष, 50 साल बाद भी चमक बरकरार
लेखक : निहाल कुमार दत्ता
नई दिल्ली। भारतीय सिनेमा के इतिहास में वर्ष 1975 को एक मील का पत्थर माना जाता है। यह न सिर्फ भारतीय राजनीति में आपातकाल की घोषणा का वर्ष था, बल्कि इसी साल हिंदी फिल्म उद्योग ने भी अपनी रचनात्मकता की पराकाष्ठा को छुआ। ‘शोले’, ‘दीवार’, ‘आंधी’, ‘चुपके चुपके’, ‘मिली’, ‘जूली’, ‘निशांत’ जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस से लेकर दर्शकों के दिलों तक राज किया। इन फिल्मों की विविधता, कथानक और प्रस्तुति आज भी सिनेप्रेमियों के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है।
बॉलीवुड में बदलाव का वर्ष
1975 में हिंदी सिनेमा में जो बदलाव आया, वह सिर्फ सितारों तक सीमित नहीं था, बल्कि लेखकों और निर्देशकों के लिए भी यह वर्ष स्वर्णिम साबित हुआ। सलीम-जावेद की जोड़ी ने ‘शोले’ और ‘दीवार’ जैसी स्क्रिप्ट लिखकर अमिताभ बच्चन को ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि दी, जबकि गुलजार की ‘आंधी’ ने राजनीति और प्रेम के बीच जूझती संवेदनाओं को दर्शाया। वहीं, श्याम बेनेगल की ‘निशांत’ ने ग्रामीण सामंतवाद पर करारा प्रहार किया।
फिल्म समीक्षक अंजुम राजाबली मानते हैं कि यह समय लेखकों, निर्देशकों और अभिनेताओं के लिए एक स्वर्णिम संयोग था। “1975 में हिंदी सिनेमा का हर रंग उभर कर सामने आया—एक ओर ‘दीवार’ जैसी गहरी और भावनात्मक फिल्म थी, तो दूसरी ओर ‘शोले’ जैसी पूर्ण मनोरंजक फिल्म। वहीं, ‘चुपके चुपके’ और ‘आंधी’ जैसे फिल्मों ने एक अलग ही अनुभव दिया,” वे कहते हैं।
अमिताभ बच्चन: ‘एंग्री यंग मैन’ की शुरुआत
1975 ने हिंदी सिनेमा को एक नया सुपरस्टार दिया—अमिताभ बच्चन। ‘दीवार’ और ‘शोले’ में उनके अभिनय ने उन्हें एक नई पहचान दी। फिल्म इतिहासकार एस. एम. एम. औसाजा कहते हैं, “यह वर्ष अमिताभ बच्चन की स्टारडम का भी 50वां सालगिरह है। इतने लंबे समय तक कोई सुपरस्टार टिके, यह दुर्लभ है। ‘दीवार’ और ‘शोले’ ने ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि को गढ़ा, जो आने वाले दशकों तक हिंदी सिनेमा पर छाई रही।”
लेखन का स्वर्ण युग
इस दौर में फिल्मों की सफलता में लेखकों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही। सलीम-जावेद, गुलजार, और राही मासूम रज़ा जैसे लेखकों ने हिंदी सिनेमा को एक नया आयाम दिया। “तब लेखन इतना सशक्त था कि संवाद जनता की भावनाओं को सीधा छूते थे। ‘दीवार’ में नायक का व्यवस्था से सवाल करना लोगों के आक्रोश को दर्शाता था,” औसाजा कहते हैं।
फिल्म लेखक निरेन भट्ट मानते हैं कि आज की फिल्मों में यह गहराई कहीं खो गई है। “उस समय कोई पीआर, सोशल मीडिया नहीं था। फिल्में खुद अपनी पहचान बनाती थीं। ‘चुपके चुपके’ की भाषा देखें, तो वह साहित्यिक थी, न कि केवल हास्य से भरी। ‘आंधी’ जैसी राजनीतिक प्रेम कहानी फिर कभी नहीं बनी,” वे कहते हैं।
हिंदी सिनेमा का एक युग
फिल्म इतिहासकार अमृत गंगार मानते हैं कि 1975 केवल हिंदी सिनेमा के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय समाज और राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण था। “यह वह दौर था जब भारतीय युवाओं में आक्रोश था, जो सिनेमा में भी झलकता था। ‘दीवार’ का नायक व्यवस्था से सवाल कर रहा था, जो दर्शकों से गहरा संबंध बना रहा था। 50 साल बाद भी, 1975 को उसकी फिल्मों के कारण याद किया जाता है,” वे कहते हैं।
स्वर्ण जयंती वर्ष में पुनरावलोकन
1975 के ये सिनेमाई रत्न आज भी लोगों के दिलों में बसे हुए हैं। यह दशक हिंदी सिनेमा की कहानी कहने की शैली को लगातार बदलते रहने का गवाह है—1950 के आदर्शवाद से लेकर 1960 के चुलबुले रोमांस और फिर 1970 के उग्र यथार्थवाद तक। “हर दशक की अपनी अलग भाषा होती है। 1975 का दशक हमें यह सिखाता है कि फिल्में समाज का दर्पण होती हैं,” अंजुम राजाबली कहते हैं।
50 साल बाद भी, 1975 की ये फिल्में न सिर्फ स्वर्ण जयंती मना रही हैं, बल्कि यह साबित कर रही हैं कि जब कहानी, निर्देशन और अभिनय एक साथ चमकते हैं, तो सिनेमा कालजयी बन जाता है।
सिनेमा के स्वर्णिम 50 वर्ष. सही और सही अभिव्यक्ति है.
अब वो युग दोबारा नहीं आएगा.
अभी तो बस शोर है संगीत के नाम पर, कपड़े के नाम पर अश्लीलता,
कथाकार बेअसर,
निराशा है अब.
राजनीति और प्रचण्ड जलन.
मौलिक विषयों और कलाकारों को अवसर नहीं देती