प्रकाश और अंधकार की कला: भारतीय सिनेमा में कियरोस्क्यूरो तकनीक
सिनेमा केवल कहानी कहने का माध्यम नहीं, बल्कि प्रकाश और छायाओं के समन्वय से भावनाओं को गहराई देने की कला भी है। कियरोस्क्यूरो (Chiaroscuro), जो कि इतालवी शब्द “Chiaro” (प्रकाश) और “Scuro” (अंधकार) से बना है, मूल रूप से पुनर्जागरण काल की चित्रकला में प्रसिद्ध था। लेकिन जब यह तकनीक सिनेमा में आई, तो इसने दृश्यों को केवल रोशनी से नहीं, बल्कि अंधकार के संतुलन से भी संवेदनशीलता प्रदान की। भारतीय सिनेमा में इस तकनीक को अद्वितीय ऊंचाइयों तक पहुंचाने का श्रेय गुरुदत्त को दिया जाता है।
गुरुदत्त की सिनेमाई रोशनी और अंधकार की भाषा
गुरुदत्त की फिल्में जैसे प्यासा (1957) और कागज़ के फूल (1959), कियरोस्क्यूरो तकनीक का उत्कृष्ट उदाहरण मानी जाती हैं। प्यासा के प्रसिद्ध गीत “जाने वो कैसे लोग थे…” में रोशनी और छाया का अद्भुत संयोजन न केवल किरदार की मानसिक स्थिति को दर्शाता है, बल्कि उसकी गहरी वेदना को भी उजागर करता है। वहीं, कागज़ के फूल में गुरुदत्त और वहीदा रहमान पर फिल्माया गया वह प्रसिद्ध दृश्य, जहां स्टूडियो की अंधेरी पृष्ठभूमि में उन पर एक किरण मात्र पड़ती है, सिनेमा के सबसे यादगार दृश्यों में से एक बन गया।
समांतर सिनेमा और कियरोस्क्यूरो का प्रभाव
भारतीय समानांतर सिनेमा में भी इस तकनीक का गहरा प्रभाव देखा गया। श्याम बेनेगल और गोविंद निहलानी जैसे निर्देशकों ने इसे सामाजिक और राजनीतिक विषयों को उभारने के लिए उपयोग किया। अर्धसत्य (1983) में गोविंद निहलानी ने अंधेरे और रोशनी के बीच संघर्ष को नायक के नैतिक द्वंद्व से जोड़ा, जिससे कहानी का प्रभाव और गहरा हो गया।
आधुनिक भारतीय सिनेमा में कियरोस्क्यूरो की नई परिभाषा
आधुनिक भारतीय सिनेमा में संजय लीला भंसाली और अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक इस तकनीक को नई ऊंचाइयों तक ले गए। अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे (2004) में 1993 के बम धमाकों की भयावहता को दर्शाने के लिए गहरे अंधकारमय फ्रेम्स का इस्तेमाल किया गया, जिससे दृश्यों की गंभीरता और बढ़ गई। वहीं, संजय लीला भंसाली ने ब्लैक (2005) में इस तकनीक के जरिए नायिका के अंधकार से प्रकाश तक की यात्रा को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया।
सिनेमा की आत्मा है प्रकाश और छाया
भारतीय सिनेमा में कियरोस्क्यूरो तकनीक केवल दृश्य सौंदर्य तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पात्रों की मानसिक स्थिति, सामाजिक संदेश और फिल्म की संपूर्ण संवेदनशीलता को एक नई पहचान देने का कार्य भी करती है। चाहे वह गुरुदत्त की गहरी उदासी हो, निहलानी का यथार्थवाद हो, या भंसाली की भव्यता—प्रकाश और अंधकार का यह खेल भारतीय सिनेमा का एक अमिट स्तंभ बन चुका है।
रिपोर्ट: निहाल देव दत्ता