भूत और प्रेम का बेसुरा संगम: ‘द भूतनी’ बनी डर और हंसी का भूतिया तमाशा

बॉलीवुड में हॉरर-कॉमेडी का चलन कोई नया नहीं, लेकिन फिल्म ‘द भूतनी’ इस शैली को एक नए स्तर पर ले जाती है—अफ़सोस, ये स्तर बहुत नीचे का है। सेंट विंसेंट कॉलेज की पृष्ठभूमि पर बनी यह फिल्म भूतिया प्रेम कहानी, हास्य के नकली रंग और संपादन की अव्यवस्थित कोशिशों का ऐसा मिश्रण है, जिसे देख दर्शक सिर्फ एक ही सवाल पूछता है—“आख़िर ये बनाया क्यों गया?”

कहानी का भूतिया खाका:
सेंट विंसेंट कॉलेज, जहाँ पढ़ाई कम और अफ़वाहें ज़्यादा होती हैं, वहां की “वर्जिन ट्री” को छात्र सच्चे प्यार की मन्नत के लिए पूजते हैं। हर वैलेंटाइन्स डे पर एक भूत ‘मोहब्बत’ (नाम में ही इशारा साफ़ है) जाग उठती है। उसे प्यार चाहिए। और उसके सामने आता है शान्तनु यानी सनी सिंह। नतीजा? बेचारी मोहब्बत की मोहब्बत अधूरी रह जाती है।

अदाकारी या अभिनय का अंत?
संजय दत्त इस फिल्म में एक तांत्रिक बाबा के रूप में नजर आते हैं, और वही हैं जो इस डूबती नाव को थोड़ी देर तक तैराते हैं। उनका संवाद और स्क्रीन प्रजेंस देखने लायक़ है।

मौनी रॉय ‘मोहब्बत’ के किरदार में भूत और प्रेमिका के बीच झूलती हैं, लेकिन स्क्रिप्ट की कमजोरी उनके अभिनय को भी प्रभावित करती है। वहीं सनी सिंह की अभिनय क्षमता दर्शकों की सहानुभूति की मोहताज लगती है—ना रोमांस, ना डर, बस ख़ालीपन।

पलक तिवारी, जो शान्तनु की प्रेमिका बनी हैं, ‘अति-समर्पित’ प्रेमिका की भूमिका में ओवरएक्टिंग की हदें पार करती हैं। यूट्यूबर ‘Be You Nick’ और ‘पंचायत’ फेम आसिफ़ ख़ान हास्य राहत के रूप में आते हैं, पर उनके दृश्य भी अधपके यूट्यूब स्केच जैसे लगते हैं।

VFX और संपादन की खिचड़ी:
फिल्म के स्पेशल इफेक्ट्स इतने कमजोर हैं कि लगता है जैसे स्कूल प्रोजेक्ट के लिए पावरपॉइंट पर बनाया गया हो। बिजली की झलकियाँ और होली के रंग ऐसे फेंके गए हैं जैसे निर्देशक खुद समझ नहीं पाए कि डराना है या हँसाना।

संपादन का स्तर ऐसा है कि हर सीन बिना तारतम्य के कटा-पिटा लगता है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे एडिटिंग किसी लॉटरी सिस्टम पर की गई हो।

निर्देशन की दिशा में भटकाव:
निर्देशक सिद्धांत सचदेव शायद फिल्म की कहानी पहले ड्राफ्ट में कहीं खो बैठे। पूरी फिल्म में एक भी सीन ऐसा नहीं है जो रचनात्मक दिशा का संकेत दे।

फाइनल फ़ैसला:
‘द भूतनी’ एक ऐसा अनुभव है जो दर्शकों को हॉरर के नाम पर हैरानी और कॉमेडी के नाम पर कराह देने पर मजबूर करता है। यह फिल्म न डराती है, न हंसाती है—बस थकाती है।

देखें अगर:
आप ‘स्त्री’, ‘मुनज्या’, और अपने फ्रिज का अंदरूनी हिस्सा कई बार देख चुके हैं।

बचें अगर:
आप अपने समय, मानसिक शांति और बिजली बिल की कद्र करते हैं।

रेटिंग:

  • 1 अंक: बाबा के स्वैग के लिए
  • 0.5 अंक: मौनी रॉय के प्रयास के लिए
  • 0.5 अंक: इतनी हिम्मत दिखाने के लिए कि इसे थिएटर में रिलीज़ किया

कुल: 2/5

 

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