भारत की आजादी की लड़ाई के महानायक और ‘क्रांतिकारी विचारों के जनक’ कहे जाने वाले बिपिन चंद्र पाल की 166वीं जयंती पर देशभर में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही है। भारत के राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाले इस प्रेरणास्रोत ने आजादी के आंदोलन में अपनी असाधारण भूमिका निभाई और स्वदेशी आंदोलन के जरिए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जनता को संगठित किया। बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक और लाला लाजपत राय के साथ ‘लाल-बाल-पाल’ की त्रिमूर्ति का हिस्सा थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार मुहिम चलाई और देश की स्वतंत्रता के संघर्ष को नई दिशा दी।

बंगाल विभाजन का कड़ा विरोध करने वाले पाल ने 1905 में स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन की शुरुआत की, जिससे लाखों देशवासियों में राष्ट्रवाद की भावना जागृत हुई। उन्होंने अपने जोशीले भाषणों और लेखों के जरिए लोगों को संगठित किया और अंग्रेजी शासन की बर्बर नीतियों का खुलासा किया। पाल ने कई पत्र-पत्रिकाओं में संपादन कार्य किया, साथ ही उन्होंने ‘परिदर्शक’, ‘न्यू इंडिया’, ‘बंदे मातरम’ और ‘स्वराज’ जैसी पत्रिकाओं की स्थापना की, जिनके माध्यम से स्वतंत्रता और समाज सुधार के अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाया। ‘बंदे मातरम’ में उन्होंने प्रसिद्ध राष्ट्रवादी नेता अरविंदो घोष को भी संपादकीय टीम में आमंत्रित किया, जिसके चलते दोनों नेताओं ने साथ मिलकर राष्ट्रवाद का बिगुल बजाया।

पाल अपने समय में कांग्रेस के सक्रिय सदस्य थे, परंतु जब उन्होंने कांग्रेस की नरम नीतियों पर सवाल उठाए, तब उनके विचारों ने पार्टी में अलग ही संदेश दिया। अरविंदो घोष ने उन्हें ‘राष्ट्रीयता के महाप्रवक्ता’ के रूप में सम्मानित किया। वे समाज सुधारों के प्रबल पक्षधर थे और विधवा पुनर्विवाह, महिला शिक्षा और लैंगिक समानता के समर्थक थे। बिपिन चंद्र पाल की विचारधारा और नेतृत्व ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक नई जान फूंकी और एक संपूर्ण स्वराज का सपना देशवासियों को दिखाया।

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