सिनेमा में यात्रा, परिवर्तन और अस्तित्व की गूंज
सिनेमा में रेलगाड़ी एक महत्वपूर्ण प्रतीक के रूप में उभरती रही है, जो न केवल प्रगति, परिवर्तन और औद्योगीकरण को दर्शाती है, बल्कि मानवीय अस्तित्व, भाग्य और सामाजिक ढांचे की कठोरता को भी परिभाषित करती है। भारतीय समानांतर सिनेमा में ट्रेनों का उपयोग एक गहरे अर्थ को व्यक्त करने के लिए किया गया है, जो पात्रों की आंतरिक यात्रा को उनके भौतिक सफर से जोड़ता है।
समानांतर सिनेमा में रेलगाड़ी का प्रतीकात्मक उपयोग
1974 में बनी अवतार कृष्ण कौल की फिल्म 27 डाउन में ट्रेन को अस्तित्वगत पीड़ा और भाग्य के प्रतीक के रूप में दर्शाया गया है। फिल्म के लंबे सीक्वेंस में ट्रेन, रेलवे स्टेशन और पटरियों की पुनरावृत्ति से जीवन की नीरसता और नियति की अपरिहार्यता को उकेरा गया है।
1953 में विमल रॉय द्वारा निर्देशित दो बीघा ज़मीन में ट्रेन औद्योगीकरण और विस्थापन का प्रतीक बनती है, जो किसानों के संघर्ष और शोषण को उजागर करती है। इसी तरह, सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली (1955) में रेलगाड़ी नायक अपू के लिए एक उज्जवल भविष्य की आशा का प्रतीक बनकर आती है, जहां ग्रामीण ठहराव के बीच ट्रेन की गूंज एक नए संसार से जुड़ने की इच्छा को दर्शाती है।
ऋत्विक घटक की फिल्मों में ट्रेन का उपयोग विस्थापन और समाज के क्रूर यथार्थ को व्यक्त करने के लिए किया गया। मेघे ढाका तारा (1960) में ट्रेन की ध्वनि विभाजन से उपजे आघात को प्रतिबिंबित करती है, जबकि सुवर्णरेखा (1965) में यह सामाजिक विस्थापन और आधुनिकता के अंधाधुंध विस्तार का प्रतीक बनती है।
आंतरिक परिवर्तन और अस्तित्व की खोज
मृणाल सेन की भुवन शोम (1969) में ट्रेन एक नौकरशाह के आत्म-खोज के सफर का प्रतिनिधित्व करती है। यह यात्रा न केवल स्थान की बल्कि मानसिक और भावनात्मक परिवर्तन की यात्रा भी बन जाती है। कोरस (1974) में ट्रेन औद्योगीकरण और समाज के तीव्र परिवर्तन का प्रतीक बनती है।
अडूर गोपालकृष्णन की मलयालम फिल्म एल्लिपथायम (1982) में ट्रेन परिवर्तन के प्रतीक के रूप में उभरती है, जिससे नायक का अलगाव और पराजय स्पष्ट होती है। तमिल फिल्म परुथी वीरण (2007) में ट्रेन एक अनिवार्य त्रासदी की पूर्वसूचना के रूप में उभरती है।
प्रेम, शहर और आधुनिक समाज की छवि
मणिरत्नम की दिल से (1998) में ‘छैंया छैंया’ गीत का दृश्य ट्रेन की अस्थिरता और प्रेम की तीव्रता को दर्शाता है। इसके विपरीत, द लंचबॉक्स (2013) में मुंबई की लोकल ट्रेनें शहरी अकेलेपन और आकस्मिक मानवीय संबंधों का प्रतीक बनती हैं।
भारतीय समानांतर सिनेमा में ट्रेन केवल एक परिवहन का साधन नहीं, बल्कि एक गहरे प्रतीक के रूप में इस्तेमाल की गई है, जो समाज, व्यक्ति और उनकी नियति को
प्रतिबिंबित करती है।