ब्रिटिश-भारतीय लेखक-निर्देशक संध्या सूरी की फिल्म ‘संतोष’ ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तो तारीफें बटोरी हैं, लेकिन भारतीय दर्शकों के लिए इसमें कुछ भी नया नहीं है। इस फिल्म का हाल ही में मुंबई फिल्म महोत्सव (MAMI) में प्रदर्शन किया गया। इसे बीबीसी फिल्म्स, बीएफआई और आर्टे द्वारा वित्तपोषित किया गया है, और इसे पहले ही कान फिल्म महोत्सव में प्रशंसा मिल चुकी है। लेकिन फिल्म के विषय और प्रस्तुतिकरण को लेकर आलोचना भी सामने आई है।
कहानी और निर्देशन में ताजगी की कमी
फिल्म की कहानी और पटकथा को औसत माना जा रहा है। निर्देशक संध्या सूरी ने एक बार फिर वही पुरानी कहानी चुनी है, जिसे भारतीय सिनेमा में पहले भी कई बार देखा गया है। भारतीय समाज में गरीबी, जातिगत संघर्ष और सामाजिक समस्याओं पर आधारित यह कहानी अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में तो आकर्षण का केंद्र बनती है, लेकिन भारतीय दर्शकों के लिए इसमें कुछ भी अलग या अनोखा नहीं है।
भाषा और बोली का असंगत उपयोग
फिल्म में जिस भाषा और बोली का उपयोग किया गया है, वह भी फिल्म की प्रामाणिकता पर सवाल खड़े करती है। फिल्म में उत्तर प्रदेश की बोली दिखाने का प्रयास किया गया है, लेकिन संवाद मुंबई की हिंदी की तरह लगते हैं। जैसे, ‘वो लड़का बगल में रहता है’ जैसे संवाद एक विशिष्ट क्षेत्र की भाषा का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते, जिससे दर्शकों के साथ भावनात्मक जुड़ाव नहीं बन पाता है।
अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के बावजूद आलोचना
भले ही फिल्म ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर सराहना पाई हो, लेकिन भारतीय दर्शकों के लिए इसका कंटेंट पुराना और दोहराव वाला है। पश्चिमी संस्थानों द्वारा वित्त पोषित ऐसी फिल्मों में अक्सर गरीबी, जातिगत विभाजन और संघर्ष को प्रमुखता दी जाती है, जो पश्चिमी दर्शकों को ‘पुरानी और संघर्षरत’ भारत की छवि से परिचित कराने का काम करती हैं। इससे सवाल उठता है कि क्या यह फिल्में भारत के वास्तविक और समकालीन स्वरूप को अनदेखा कर रही हैं?
शानदार अदाकारी
फिल्म में शाहाना गोस्वामी, सुनीता राजवत और नवाल शुक्ला ने बेहतरीन अभिनय किया है, जो फिल्म का एकमात्र उज्ज्वल पहलू है। उनकी अदाकारी ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित किया है, हालांकि कहानी और निर्देशन में नयापन न होने के बावजूद इन कलाकारों की प्रस्तुति फिल्म को जीवंत बनाती है।
समाज की पुरानी छवि का दोहराव
फिल्म ‘संतोष’ जैसी कहानियों को पश्चिमी वित्त पोषकों के माध्यम से बढ़ावा देने की परंपरा ने यह दिखाया है कि भारत की पुरानी छवि आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बिकती है। भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक नए दृष्टिकोण और समकालीन कहानियों की आवश्यकता है, ताकि भारत के बदलते और प्रगतिशील रूप को सही ढंग से प्रस्तुत किया जा सके।