समय के साथ सैलून और नाई की दुकानें भी बदल गई हैं। पहले जहां सड़क किनारे एक चबूतरे पर बैठाकर बाल काटे जाते थे, वहीं अब एयर-कंडीशन्ड जेंट्स पार्लर में अलग-अलग हेयरस्टाइल और मसाज पैकेज दिए जाते हैं।

बचपन में बाल कटाने की कोई पसंद-नापसंद नहीं होती थी। माता-पिता सीधे नाई को आदेश देते – “बंगला कट बना दो।” नाई अपने औजार संभालता और बालों की ऐसी कटाई करता जैसे खेत में हार्वेस्टर मशीन धान काट रही हो। तब केवल एक ही चीज़ बचती – गंजा होने से बाल-बाल बचना!

समय के साथ जब लड़के जवान हुए और फिल्मों का असर बढ़ा, तो सैलूनों में बदलाव दिखने लगा। छोटे मोहल्लों में भी अब ऐसी दुकानें खुल गईं, जहां दीवारों पर मिथुन चक्रवर्ती, गोविंदा और अमिताभ बच्चन की तस्वीरें सजी रहतीं। ग्राहकों के इंतजार का समय काटने के लिए माया, स्टारडस्ट और मनोहर कहानियों जैसी पत्रिकाएं रखी जाती थीं। वहीं, एक टेपरिकॉर्डर पर ‘अटरिया पे लोटन कबूतर’ जैसे गाने बजते, जो नाई की कैंची से भी ज्यादा तेज़ चलते।

पहले 10-20 रुपये में दाढ़ी और बाल दोनों बन जाते थे, लेकिन अब जेंट्स पार्लर में एंट्री लेते ही सवालों की बौछार शुरू हो जाती है—”कौन सा क्रीम लगाऊं?”, “शेविंग के बाद मसाज कर दूं?”, “ब्लीच भी करवा लीजिए, सर!” यानी, किसी न किसी तरीके से जेब हल्की करवाने का पूरा इंतज़ाम रहता है।

नतीजा यह है कि अब बाल और दाढ़ी बढ़ी रहने लगे हैं, और लोग मजबूरन बौद्धिक दिखने की श्रेणी में गिने जाने लगे हैं। कभी जो महज़ ‘बाल कटवाने’ की जरूरत थी, वह अब एक लग्ज़री सर्विस बन चुकी है, जहां स्टाइल के नाम पर जेब पर कैंची चलाना भी अनिवार्य हो गया है।

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