“जब गांव में फिल्में सपनों की तरह उतरती थीं…”

एक समय था… जब गांव के चौपाल पर चांदनी रात में सफेद चादर तानी जाती थी। दूर-दूर से लोग अपने साथ चटाई, लकड़ी की चौकी और मुट्ठी भर सपने लेकर आते थे। तब न मोबाइल था, न ओटीटी, न ही बड़े-बड़े मल्टीप्लेक्स। बस एक प्रोजेक्टर, एक टीन की पेटी और एक ऑपरेटर – यही था गांव का अपना सिनेमा हॉल।

“बाबू मोशाय, जिंदगी बड़ी होनी चाहिए, लंबी नहीं…” — कोई अमिताभ बच्चन के इस संवाद को पर्दे से पहले ही दोहरा देता, तो कोई दिल थामकर शोले के गब्बर का इंतजार करता।

प्रोजेक्टर की कड़क आवाज़ के बीच जैसे ही पर्दे पर नायक दिखाई देता, बच्चे खुशी से उछल पड़ते। औरतें पल्लू से मुंह ढककर शर्मातीं, बूढ़े आंखों में बचपन के सपने लिए देखते।
किसी की आंखों में “हम जहां खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है” वाली शान होती

फिल्में वहां सिर्फ देखी नहीं जाती थीं, जी जाती थीं।
जब “मेरे पास माँ है” जैसी पुकार गूंजती थी, तो कई आंखें भर आतीं।
जब वीरू की तरह पानी की टंकी पर चढ़कर कोई दिल का हाल सुनाता था, तो गांव के लड़के हिम्मत बटोरते।

फिल्म के बाद देर रात तक चौपाल पर चर्चाएँ होतीं —
“अरे भाई, वही सीन याद है? जब हीरो अकेले पूरे गुंडों को धो देता है?”
“हां रे, और वो डायलॉग — डर के आगे जीत है!”
सबके चेहरे पर मुस्कान होती, और दिलों में उम्मीद।

आज जब बड़े-बड़े स्क्रीन, डॉल्बी साउंड और 4K प्रिंट्स का ज़माना है, तब भी उन गांव की चांदनी रातों में देखे गए फिल्मों की बात ही अलग थी।
क्योंकि तब फिल्में पर्दे पर नहीं, दिलों में चलती थीं।

“इन्हीं लोगों ने… इन्हीं लोगों ने…” गीत के साथ कोई अधूरी प्रेमकहानी फिर जी उठती थी।
और कहीं न कहीं, हर किसी के दिल में वही पुराना संवाद गूंजता था —
“पल पल दिल के पास, तुम रहती हो…”

रिपोर्ट : शिवांशु सिंह सत्या

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