संपर्क और सहमति का संकट: भारत को फिर चाहिए राव-वाजपेयी वाला दौर
भारत की लोकतांत्रिक राजनीति आज जिस मोड़ पर खड़ी है, वहां सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच शिष्टाचार और सहमति की वह परंपरा लगभग समाप्त हो चुकी है, जो कभी भारतीय लोकतंत्र की विशेष पहचान मानी जाती थी। हाल के दिनों में भारत सरकार द्वारा सात देशों में भेजी जा रही बहुपक्षीय सांसदीय प्रतिनिधिमंडलों की सूची को लेकर जो राजनीतिक तकरार सामने आई, वह इस खाई को और स्पष्ट करती है।
केंद्र सरकार ने अमेरिका, यूरोप, पश्चिम एशिया और पूर्वी एशियाई देशों में भारत के दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के उद्देश्य से सात प्रतिनिधिमंडलों की घोषणा की, जिनमें कुल 59 सदस्य शामिल हैं। इनमें से 45 सदस्य संसद के हैं, जबकि अन्य वरिष्ठ नेता और राजनयिक हैं। लेकिन इस कवायद को भी राजनीतिक कटुता से नहीं बचाया जा सका।
कांग्रेस पार्टी ने शुरुआत में सरकार द्वारा सुझाए गए चार नामों—शशि थरूर, मनीष तिवारी, अमर सिंह और सलमान खुर्शीद—का विरोध किया और अपनी ओर से आनंद शर्मा, गौरव गोगोई, नासिर हुसैन और राजा वडिंग के नाम प्रस्तावित किए। हालांकि बाद में कांग्रेस ने सहमति जताई, लेकिन इससे पहले पार्टी के संचार प्रभारी जयराम रमेश ने इस पहल को “नुकसान की भरपाई” बताकर विवाद को हवा दे दी।
रमेश का यह कहना कि सरकार की विदेश नीति विफल रही और यह प्रतिनिधिमंडल उसी की मरम्मत है, इस बात को नजरअंदाज कर गया कि इस बार बात केवल सरकार की नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र के दृष्टिकोण की है—विशेषकर पाकिस्तान को लेकर।
यह स्थिति उस ऐतिहासिक क्षण से एकदम विपरीत है जब 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव और विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कंधे से कंधा मिलाकर पाकिस्तान द्वारा संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाए जाने की कोशिश को विफल किया था। यह वह दौर था जब देश के हितों के आगे राजनीतिक मतभेद गौण हो जाया करते थे।
1994 की स्मृति: जब विपक्ष बना था सरकार का सहायक
22 फरवरी 1994 को भारत की संसद ने सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की वापसी ही एकमात्र मुद्दा है। इसके ठीक पांच दिन बाद पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाया, जिसे अंततः वापस लेना पड़ा—यह संभव हुआ राव-वाजपेयी की संयुक्त रणनीति से।
उस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था, जिसमें मनमोहन सिंह, सलमान खुर्शीद, फारूक अब्दुल्ला और हमीद अंसारी जैसे कद्दावर नेता शामिल थे। यही नहीं, वाजपेयी ने आर्थिक सुधारों के समय भी नरसिंह राव को समर्थन दिया था, जब वामपंथी दल उसका विरोध कर रहे थे।
आज की राजनीति में केवल कटुता बची है
वर्तमान में राजनीति एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने तक सीमित रह गई है। कोई भी राष्ट्रहित से ऊपर उठकर सोचने का उदाहरण दुर्लभ होता जा रहा है। भारत आज ऐसे समय में है, जब पाकिस्तान चीन के सैन्य समर्थन से प्रोत्साहित हो रहा है और किसी भी दुस्साहस की आशंका बनी हुई है।
पाकिस्तान की सेना के प्रमुख जनरल असीम मुनीर यदि बीजिंग की ओर देख रहे हैं, तो भारत को भीतर से और अधिक मजबूत और एकजुट होना पड़ेगा। इसके लिए आवश्यक है कि सरकार और विपक्ष—विशेषकर कांग्रेस—एक दूसरे पर दोषारोपण करने के बजाय संवाद और सहमति की राह अपनाएं।
जरूरत है पहले कदम की, जैसा कभी राव ने बढ़ाया था
देश को फिर उस राजनीतिक समझदारी की ज़रूरत है, जैसा नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में देखने को मिला था। सरकार को पहला कदम बढ़ाना होगा और विपक्ष को संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में साथ देना होगा।
क्योंकि राष्ट्रीय मुद्दों पर सहमति ही भारत की सबसे बड़ी कूटनीतिक ताकत रही है। और आज जब चुनौतियां जटिल होती जा रही हैं, तब राजनीतिक कटुता नहीं, बल्कि राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता सबसे अधिक है।
निहाल देव दत्ता