बालराज साहनी : आम आदमी के किरदार में छिपा एक असाधारण अभिनेता
जन्मदिवस विशेष : 13 अप्रैल को हिंदी सिनेमा के महान कलाकार को याद करते हुए
बॉलीवुड के स्वर्णिम युग में यदि किसी अभिनेता ने आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष और संवेदना को पर्दे पर जीवंत किया, तो वह नाम है—बालराज साहनी। 13 अप्रैल को उनके निधन की पुण्यतिथि पर उनकी जीवन यात्रा की उन पड़ावों को याद करता है, जहां एक साधारण मनुष्य ने अभिनय की असाधारण ऊंचाइयों को छुआ।
फिल्मी दुनिया की चकाचौंध से दूर, बालराज साहनी एक ऐसे कलाकार थे, जिनकी पहचान उनके किरदारों से थी, न कि प्रचार से। कभी किसान, कभी मजदूर, तो कभी एक बेबस पिता के रूप में, उन्होंने हर भूमिका को उस संवेदनशीलता से जिया, जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है।
रावलपिंडी से शांति निकेतन तक का सफर
1 मई 1913 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान) में जन्मे युधिष्ठिर साहनी, आगे चलकर ‘बालराज साहनी’ के नाम से पहचाने गए। उनके पिता हरबंस लाल साहनी स्थानीय स्तर पर कपड़े के बड़े व्यापारी थे और आर्य समाज से जुड़े थे। उनके छोटे भाई भीष्म साहनी साहित्य और रंगमंच की दुनिया में बड़ा नाम बने।
बालराज ने लाहौर से अंग्रेजी साहित्य में एमए किया और फिर पारिवारिक व्यापार में शामिल हुए, परंतु उनके भीतर का कलाकार अधिक समय तक चुप न रह सका। उन्होंने अपने प्रेम विवाह से पिता की मर्जी के खिलाफ ‘दमयंती’ से विवाह किया और आगे चलकर शांतिनिकेतन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के विश्वविद्यालय में अध्यापक बने।
गांधी से जुड़े, फिर पहुंचे बीबीसी
1939 में वर्धा के सेवाग्राम में गांधीजी के निकट काम करते हुए बालराज साहनी का पत्रकारिता से नाता जुड़ा। यहीं से वे लंदन गए और बीबीसी हिंदी सेवा में 1940 से जुड़े। लेकिन उनका असली मंच था—रंगमंच और फिल्में।
इप्टा से शुरुआत और फिर ‘धर्ती के लाल’
1944 में भारत लौटने के बाद वे बंबई पहुंचे, जहां इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) के माध्यम से नाटकों में अभिनय शुरू किया। ख्वाजा अहमद अब्बास और चेतन आनंद जैसे रचनात्मक साथियों ने उन्हें फिल्मी पर्दे तक लाया।
1946 की फिल्म ‘धर्ती के लाल’ से उन्हें प्रमुख अभिनेता के रूप में पहचान मिली। इसी फिल्म में उनकी पत्नी दमयंती ने भी अभिनय किया था। लेकिन दुर्भाग्यवश, 1947 में दमयंती का असमय निधन हुआ, जिसने बालराज को गहरे शोक में डाल दिया।
‘दो बीघा ज़मीन’ : वह संघर्ष जिसकी खुशबू आज भी है
1953 में आई बिमल रॉय की कालजयी कृति ‘दो बीघा ज़मीन’ ने बालराज को अमर कर दिया। एक किसान की भूमिका के लिए वे हकीकत में रिक्शा चलाने लगे, नंगे पांव तपती सड़कों पर दौड़े और आम आदमी के दर्द को आत्मसात किया। यही वो समर्पण था जिसने उन्हें अभिनय की परिभाषा बना दिया।
‘काबुलीवाला’ से ‘गर्म हवा’ तक
1950 और 60 के दशक में ‘सीमा’, ‘औलाद’, ‘गरम कोट’, ‘चोटी बहन’, ‘अनुपमा’, जैसी कई सामाजिक फिल्मों में उनकी भूमिकाएं यादगार रहीं। 1961 में बनी ‘काबुलीवाला’ में उन्होंने पठान की भूमिका को इतनी आत्मा से जिया कि आज भी गीत “ऐ मेरे प्यारे वतन” सुनते ही बालराज साहनी का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है।
उनकी आखिरी फिल्म ‘गर्म हवा’ (1973) भारतीय सिनेमा में विभाजन पर बनी सबसे सशक्त फिल्मों में मानी जाती है। इस फिल्म की डबिंग पूरी करने के कुछ ही दिनों बाद, 13 अप्रैल 1973 को दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया।
एक लेखक भी थे साहनी
बालराज साहनी सिर्फ अभिनेता नहीं, एक सजग लेखक भी थे। उन्होंने अंग्रेजी, हिंदी और पंजाबी में लेखन किया। ‘मेरा पाकिस्तानी सफ़रनामा’, ‘मेरा रूसी सफ़रनामा’, ‘गैर जज़्बाती डायरी’, जैसी पुस्तकों के साथ-साथ उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ भी लिखी।
एक अधूरा लेकिन सम्पूर्ण जीवन
दमयंती की मृत्यु, बेटी शबनम की असमय विदाई और अंततः उनका खुद का अलविदा—बालराज साहनी का जीवन जितना प्रेरणादायक था, उतना ही करुण भी। परंतु इन दुखों के बीच भी उन्होंने जो अभिनय की दौलत दी, वह आने वाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन देती रहेगी।
बालराज साहनी आज भी जिंदा हैं—हर उस दृश्य में, जहां आम आदमी खड़ा है अपने हक, अपने दर्द और अपने सपनों के साथ।