सीधी-सादी मोहब्बत और मासूम दोस्ती की मिसाल है ‘चश्मे बद्दूर’
फारुख शेख और दीप्ति नवल की जोड़ी ने रच दिया था प्रेम का नया अध्याय
पटना।
साल 1981 में आई फिल्म चश्मे बद्दूर आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में वही ताजगी और मुस्कान लिए जिंदा है, जैसी वह पहली बार पर्दे पर आई थी। सई परांजपे के निर्देशन में बनी यह हल्की-फुल्की रोमांटिक कॉमेडी उस दौर की भीड़ में एक अलग पहचान लेकर आई थी — जहां न कोई नाटकीय विलेन था, न कोई भव्य सेट, बस थी तो सादगी से सजी एक प्यारी सी कहानी।
फारुख शेख और दीप्ति नवल की मासूम जोड़ी ने फिल्म में मोहब्बत को जिस तरह जिया, वह आज के दिखावटी प्रेम से बिलकुल अलग था। फारुख ने जहां एक शांत, पढ़ाकू और गंभीर युवक सिद्धार्थ का किरदार निभाया, वहीं दीप्ति नवल ने नेहा के रूप में एक सौम्य और सादगी से भरी लड़की को परदे पर उतारा। दोनों के बीच की खामोश मोहब्बत, छोटी-छोटी मुलाकातें और आंखों ही आंखों में संवाद — यही तो वो चीज़ें थीं, जो दर्शकों को गहराई से छू गईं।
फिल्म की खासियत इसका सहज हास्य और दिल्ली की गलियों में बसी तीन कुंवारे दोस्तों की ज़िंदगी थी। रवि बासवानी और राकेश बेदी की मौजूदगी ने फिल्म में हास्य का जो रंग भरा, वह आज भी दर्शकों को गुदगुदा देता है।
‘कहाँ से आए बदरा’ और ‘काली घोड़ी द्वार खड़ी’ जैसे गीत न सिर्फ फिल्म की आत्मा बने, बल्कि प्रेम की भावना को सुरों के माध्यम से और भी गहरा कर गए।
सई परांजपे की खासियत रही है, रोज़मर्रा की साधारण चीज़ों को असाधारण बना देना — चश्मे बद्दूर इसका जीता-जागता उदाहरण है। बिना किसी तामझाम के, इस फिल्म ने मोहब्बत और दोस्ती को उस रूप में दिखाया जो वास्तविकता के बेहद करीब था।
आज जब सिनेमा तकनीक और विजुअल इफेक्ट्स से भरा पड़ा है, चश्मे बद्दूर जैसे सादगी भरे फिल्में दर्शकों को यह याद दिलाती हैं कि असली जादू दिल से निकली कहानी और सच्चे अभिनय में होता है।
पुरानी फिल्मों के चाहने वालों के लिए, यह फिल्म न सिर्फ एक याद है, बल्कि एक एहसास है — उन दिनों का जब मोहब्बत में सच्चाई और दोस्ती में गर्माहट हुआ करती थी।
रिपोर्ट: निहाल देव दत्ता