इन गलियों में: संवेदनाओं की पुनर्रचना का जीवंत दस्तावेज़
साहित्य और सिनेमा का मेल जब किसी अनुभवी हाथों में होता है, तो वह केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक जीवंत अनुभव बन जाता है। निर्देशक अविनाश दास की नई फिल्म इन गलियों में इसी अनुभूति को साकार करती है। यह फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि संवेदनाओं, यादों और प्रेम की पुनर्रचना है, जहां लेखक वसु मालवीय की आत्मा अपने शब्दों और पात्रों के जरिए फिर से जीवंत हो उठती है।
वसु की कहानियों का नया स्वरूप
वसु मालवीय की रचनात्मक विरासत को उनके बेटे पुनर्वसु ने अपने लेखन से नया आयाम दिया है। फिल्म में मिर्ज़ा, भंगा, हरिया और शब्बो के किरदारों की गहराई को इस तरह गढ़ा गया है कि वे पर्दे पर वास्तविकता का आभास कराते हैं। वसु का कहानी संग्रह सूखी नहीं है नदी जैसे एक बार फिर सजीव हो उठा है, जिसमें प्रेम, संघर्ष और समाज की संवेदनशील परतें उभरकर सामने आती हैं।
अभिनय: जब किरदार सांस लेने लगते हैं
फिल्म में विवान शाह और अवंतिका दासानी की जोड़ी विशेष रूप से आकर्षक लगती है। विवान की आवाज़ में उनके पिता नसीरुद्दीन शाह की झलक मिलती है, वहीं अवंतिका में उनकी मां भाग्यश्री का मासूम सौंदर्य देखने को मिलता है। दोनों की केमेस्ट्री फिल्म की आत्मा को मजबूती देती है।
इश्तियाक के अभिनय में भारत एक खोज के विचारों की गूंज सुनाई देती है। उनका भंगा के रूप में अभिनय इस फिल्म को एक नई ऊंचाई देता है। वहीं, राजीव ध्यानी की उपस्थिति फिल्म में गति और प्रवाह जोड़ती है, जो लखनऊ की संस्कृति की जीवंतता को उभारती है।
गीत-संगीत: सुरों में बसी संवेदनाएं
पुनर्वसु द्वारा लिखे गए गीत और अमान मलिक की धुनें फिल्म को एक गहरी अनुभूति प्रदान करती हैं। महबूब गली महकती है, चार चांद लगा देता एक चांद ईद का जैसे गीत समय की संगीतमयी अभिव्यक्ति लगते हैं।
फिल्म जो साहित्यिक विरासत को जीवंत करती है
कृष्णा सोबती ने कहा था, लेखक की एक ज़िंदगी उसकी मौत के बाद शुरू होती है। इन गलियों में यह साबित करती है कि वसु मालवीय की रचनाएं केवल साहित्य तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि अब वे सिनेमा के जरिए भी जीवंत हो उठी हैं।
फिल्म उन गलियों की याद दिलाती है जहां कहानियों ने जन्म लिया था। यह एक पुत्र द्वारा अपने पिता को दी गई सबसे बड़ी श्रद्धांजलि है। यदि आप संवेदनशील सिनेमा के प्रेमी हैं, तो इन गलियों में आपको जरूर देखनी चाहिए।
रिपोर्ट : शिवांशु सिंह सत्या