ईरान पर हमला: नेतन्याहू के युद्ध उद्देश्य और संभावित अंजाम
इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने ईरान पर सैन्य अभियान शुरू करते हुए दो स्पष्ट लक्ष्य सार्वजनिक रूप से घोषित किए हैं – ईरान की परमाणु क्षमताओं को पूरी तरह समाप्त करना और देश की जनता को मौलवियों की सत्ता के खिलाफ खड़ा करना।
नेतन्याहू ने यह भी स्पष्ट किया है कि यह अभियान कम से कम दो सप्ताह तक चल सकता है। इज़राइली रक्षा बल (IDF) और खुफिया एजेंसियों ने ईरानी सैन्य नेतृत्व को खत्म करने और उसकी हवाई सुरक्षा प्रणाली को पूरी तरह ध्वस्त करने की रणनीति अपनाई है। अब इज़राइली विमान ईरानी वायु सीमा में स्वतंत्र रूप से काम कर सकते हैं, ईंधन भर सकते हैं और विशेष बलों को वहां तैनात कर सटीक हमले कर सकते हैं।
युद्ध का उद्देश्य: ईरान का परमाणु कार्यक्रम नष्ट करना
ईरान का परमाणु कार्यक्रम कई दशकों से वैश्विक चिंता का विषय रहा है। नेतन्याहू इस समय का उपयोग अपने “सुरक्षा-कमांडर” की छवि को फिर से स्थापित करने के लिए कर रहे हैं, खासकर अक्टूबर 2023 के हमास हमलों के बाद।
इज़राइल का सबसे बड़ा सैन्य लक्ष्य ‘फोर्डो’ परमाणु सुविधा को निष्क्रिय करना है, जो तेहरान के दक्षिण में एक पहाड़ी के नीचे स्थित है। यह सुविधा इतनी गहराई में है कि अमेरिका के सबसे घातक बम भी उसे पूर्णतः नष्ट नहीं कर सकते। इज़राइली विशेष बलों की मदद से इस स्थान पर हमले की योजना है, लेकिन यह भी एक अस्थायी समाधान भर होगा क्योंकि इन संरचनाओं को भविष्य में फिर से बनाया जा सकता है।
साथ ही, ईरान के पास पहले से 60% तक समृद्ध यूरेनियम का भंडार है, जो हथियार-ग्रेड 90% तक ले जाकर 10 परमाणु बम तक के निर्माण की क्षमता रखता है। इज़राइल को इस भंडार का भी पता लगाना और उसे समाप्त करना होगा, जो एक कठिन चुनौती है।
ईरान में शासन परिवर्तन की रणनीति
नेतन्याहू की दूसरी महत्वाकांक्षा ईरानी शासन का पतन है। अभी तक की कार्रवाइयों में इज़राइल ने ईरान के शीर्ष सैन्य नेताओं को निशाना बनाया है, जिनमें रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स के प्रमुख भी शामिल हैं।
महसा अमीनी की मौत के बाद “महिला, जीवन, स्वतंत्रता” आंदोलन से यह स्पष्ट हो गया था कि ईरानी जनता में आक्रोश है। लेकिन फिर भी 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से यह शासन तमाम संघर्षों के बावजूद बचता रहा है। उसकी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अब भी बेहद मजबूत है। यदि इज़राइली हमले आम नागरिकों को नुकसान पहुंचाते हैं, तो यह शासन के खिलाफ नहीं बल्कि उसके समर्थन में “रैली अराउंड द फ्लैग” की स्थिति भी पैदा कर सकता है।
क्या अमेरिका इस युद्ध में कूदेगा?
ईरान ने संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका पर सीधे आरोप लगाया है कि वह इज़राइल को खुफिया और सैन्य मदद दे रहा है। रिपब्लिकन सीनेटर लिंडसे ग्राहम जैसे नेता खुलेआम अमेरिका से “इस काम को खत्म करने” में इज़राइल की मदद करने की मांग कर रहे हैं।
हालांकि, पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (जो फिर से सत्ता में लौटने की तैयारी में हैं) लंबे युद्धों के विरोधी माने जाते हैं। लेकिन अगर ईरान या उसके समर्थित गुट अमेरिका के किसी सैन्य अड्डे को निशाना बनाते हैं, तो ट्रंप पर कार्रवाई का दबाव बढ़ेगा।
रूस की भूमिका पर भी निगाहें हैं, लेकिन अभी के हालात में वह यूक्रेन युद्ध में उलझा है और उसने सीरिया में भी हाल के वर्षों में सीधे हस्तक्षेप से परहेज़ किया है। सऊदी अरब और UAE जैसे क्षेत्रीय ताकतों ने हाल में ईरान से संबंधों में सुधार किया है और वे इस युद्ध से दूर रहना चाहेंगे।
स्थिति अनिश्चित, भविष्य और भी खतरे से भरा
ईरान ने जवाबी कार्रवाई में इज़राइल के आयरन डोम सिस्टम को भी आंशिक रूप से भेद दिया, जिससे इज़राइल में नागरिक हताहत हुए। अगर ऐसे हमले और बढ़े, तो नेतन्याहू की रणनीति पर घरेलू असंतोष भी पनप सकता है।
हालांकि इस समय अधिकांश इज़राइली नागरिक नेतन्याहू के निर्णय के पक्ष में दिखते हैं। उन्होंने यह भी चेतावनी दी है कि अगर ईरान ने जानबूझकर नागरिक ठिकानों को निशाना बनाया, तो वह तेहरान को “जला” देंगे।
इस संघर्ष के बाद भी यह संभावना है कि ईरान परमाणु अप्रसार संधि (NPT) से बाहर निकल जाएगा और IAEA को निरीक्षण करने से रोक देगा। इससे भविष्य में उसका परमाणु कार्यक्रम और अधिक गोपनीय और खतरे से भरा हो जाएगा।
निष्कर्ष: क्या यह युद्ध वास्तव में समाधान है?
इस समय तक, नेतन्याहू की रणनीति ने ईरान के परमाणु ढांचे को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह स्थायी समाधान है या भविष्य के एक और, और अधिक खतरनाक, संघर्ष की नींव?
ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाएं खत्म नहीं होंगी। और अगर वह परमाणु हथियार हासिल करता है, तो पूरे मध्य पूर्व में अस्थिरता और बढ़ेगी। यह युद्ध भले ही नेतन्याहू के लिए एक राजनीतिक राहत लेकर आया हो, लेकिन क्षेत्रीय शांति के लिए यह एक नया खतरा बनता दिख रहा है।
अंतरराष्ट्रीय विश्लेषण | टीडब्लूएम न्यूज़
लेखक: अमर शर्मा, अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ