जो भक्त “अनन्य” भाव से मेरा स्मरण करता है ऐसे भक्त को मैं सुलभ सहज ढंग से प्राप्त हो जाता हूँ।
“बाबा नाम केवलम” कीर्तन अनन्य भाव का कीर्तन है।
विष्णु वह सत्ता है जो सभी सत्ता में समान रूप से व्याप्त है।
मुंगेर: आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की ओर से आयोजित तीन दिवसीय विश्व स्तरीय धर्म महासम्मेलन के प्रथम दिन अमझर कोलकाली,आनन्द सम्भूति मास्टर यूनिट में ब्रह्म मुहूर्त में साधक-सधिकाओं ने गुरु सकाश एवं पाञ्चजन्य में “बाबा नाम केवलम” का गायन कर वातावरण को मधुमय बना दिया।प्रभात फेरी में गली-गली अष्टाक्षरी महामंत्र का गायन किया।पुरोधाप्रमुख जी के पंडाल पहुंचने पर कौशिकी व तांडव नृत्य किया गया।
वहीं साधकों को संबोधित करते हुए पुरोधा प्रमुख श्रद्धेय आचार्य विश्वदेवानन्द अवधूत ने “आनन्द सम्भूति और नाम कीर्तन की प्रयोजन सिद्धि” पर प्रकाश डालते हुए “अनन्य-ममता विष्णु
ममता प्रेम-संगता” इस “अनन्य “शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि भारतीय दार्शनिको के अनुसार इस शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है।पहला किसी अन्य की ओर न जाने वाला और दूसरा है,जिसका संबंध किसी अन्य से ना हो।इस प्रकार उक्त श्लोक के अंश का आश्रय बताते हुए उन्होंने कहा कि जब मन का किसी वस्तु या सत्ता के प्रति ममता न होकर जब अपनापन (ममता) विष्णु के प्रति हो जाता है।इसे ही प्रेम कहते हैं।
जब मन किसी अन्य वस्तु या सत्ता की ओर ना जाकर सिर्फ परम सत्ता की ओर जाता है तब इसे प्रेम कहते हैं।विष्णु शब्द की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि विष्णु वह सत्ता है जो सभी सत्ता में समान रूप से व्याप्त है।विष्णु का मतलब संस्कृत में “विष “धातु है।जिसका अर्थ है व्याप्त होना।जब ममता विष्णु के प्रति सोलहो आना हो जाता है उसे प्रेम कहेंगे,यही तो सर्वोच्च उद्देश्य या प्राप्ति है।श्रीमद् भागवत गीता में भी कहा गया है जो मेरा नित्य प्रति निरंतर एक चित होकर अनन्या भाव से मेरा स्मरण करता है।ऐसे योगी को मैं सुलभ सहज ढंग से प्राप्त हो जाता हूँ।तात्पर्य है कि जब हम प्रेम पूर्ण हृदय से परम पुरुष को याद करते हैं तो “मैं और तुम” का संबंध एकात्मकता स्थापित करते हुए “मैं-तुम” और “तुम-मैं” भाव बोध की प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है।भक्त कहता है तुम्हारे मधुर आकर्षण में मैं सब कुछ भूल कर तुम मय” हो गया हूँ यही है “अनन्य “भक्ति का अन्तर्निहित भाव।
उन्होंने कहा कि कीर्तन के समय श्रद्धा और प्रेम के साथ मन में परम पुरुष का दिव्य स्वरूप रहता है।इस स्थिति में दो बातें रहती है।कीर्तन के समय श्रद्धा और प्रेम तथा मन में रहता है।उनका दिव्य स्वरूप।
प्रवचन के माध्यम से,आचार्य विश्वदेवानन्द अवधूत ने ईश्वर की प्राप्ति के लिए कीर्तन का महत्त्व प्रदर्शित किया है।उन्होंने समझाया कि कीर्तन हमें एक साधना के रूप में सेवा करता है,जो हमें ईश्वरीय ज्ञान,आनन्द और प्रेम का अनुभव कराता है।यह हमें मन की शांति,आत्मा की गहनता और आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति करने में मदद करता है।यह एक स्पष्ट रूप से बताता है कि कीर्तन का महत्त्व इसलिए है क्योंकि यह हमें ईश्वर के साथ एकीभाव में ले जाता है और हमें साक्षात्कार का अनुभव कराता है।कीर्तन अपने आप में ही एक अनुभव है।यह एक स्थिर अवस्था है जो हमें अपने स्वभाव के साथ मेल कराती है और हमारे जीवन को पूर्णता और प्रकाश के द्वारा परिपूर्ण बनाती है।
इस प्रकार,कीर्तन हमें ईश्वरीय ध्यान की गहराई तक पहुंचने में मदद करता है और हमारे आंतरिक सत्य को प्रकट करता है।
आनन्द सम्भूति मास्टर यूनिट उन्हीं की कृपा से यह स्थान हमें मिला है।इसे हमें आध्यात्मिक केंद्र बनाना है।इस भू-भाग को “बाबा मय “बनाना है। “बाबा नाम केवलम” सिद्ध महामंत्र के भाव तरंगों से बाबा नाम केवलम पूरे दुनिया में हो रहा है।आनन्द नगर में पिछले कई वर्ष से लगातार जारी है।उन्होंने भक्तों से अपील कि आप लोग रात में खूब जोर-जोर से कीर्तन करना है और आनन्द सम्भूति मास्टर यूनिट को “बाबामय ” बनाना है।