फणीश्वरनाथ रेणु : साहित्य की जनपदीय आत्मा, जो आज भी जीवित है

पटना, 4 मार्च। हिंदी साहित्य में ग्राम्य जीवन की गूंज को नई पहचान देने वाले कालजयी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु आज 104 वर्ष के होते। बिहार के पूर्णिया जिले के औराही हिंगना गाँव में जन्मे रेणु का जीवन संघर्ष, साहित्य और समाजवाद की त्रिवेणी रहा। स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी से लेकर नेपाल के राजतंत्र और इंदिरा गांधी की आपातकालीन नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने तक, उन्होंने हमेशा अन्याय के खिलाफ कलम और कर्म दोनों से लड़ाई लड़ी।

तीस वर्ष की आयु में लिखा उनका उपन्यास मैला आँचल हिंदी साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ। यह न केवल ग्रामीण भारत की तस्वीर को उकेरने वाला उपन्यास था, बल्कि समाज और राजनीति को भी आईना दिखाने का कार्य करता था। प्रेमचंद और शिवपूजन सहाय की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए, उन्होंने गाँवों की आत्मा को साहित्यिक पहचान दी। हालाँकि, उनके यथार्थवादी चित्रण को कुछ आलोचनाओं का भी सामना करना पड़ा, परंतु रेणु अपने विचारों पर अडिग रहे।

उनकी कहानियों में लोक कलाकारों, नटुआ नर्तकों, मृदंग वादकों, घास काटने वाली महिलाओं और संघर्षरत मजदूरों की कहानियाँ जीवंत हो उठती थीं। उनका साहित्य केवल प्रेम और करुणा की अभिव्यक्ति नहीं था, बल्कि उसमें विद्रोह की धड़कन भी सुनाई देती थी। यही कारण था कि रेणु का लेखन समाज में बदलाव की चेतना जगाने का माध्यम बना।

राजनीतिक चेतना के ध्वजवाहक रहे रेणु समाजवादी आंदोलन से जुड़े और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के प्रमुख सहयोगी बने। कांग्रेस सरकार की नीतियों के विरोध में उन्होंने अपना पद्मश्री सम्मान तक लौटा दिया और आपातकाल के दौरान नेपाल में शरण ली। उनका संघर्ष इतना दृढ़ था कि उन्होंने अपने पेट के अल्सर का ऑपरेशन भी आम चुनाव के नतीजे आने तक टाल दिया। जब इंदिरा गांधी की हार हुई और जयप्रकाश नारायण का आंदोलन सफल हुआ, तभी उन्होंने सर्जरी करवाई। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। पटना के पीएमसीएच अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।

आज भी रेणु का साहित्य जीवंत है। तीसरी कसम का हीरामन जब हीराबाई से कहता है, “तुम्हें कथा सुनाने का भेद आता है,” तो वह दरअसल रेणु के ही शब्द होते हैं, जो खुद उनके साहित्य पर सटीक बैठते हैं। उनका लेखन एक ऐसा दर्पण है, जिसमें गाँव, किसान, संघर्ष, प्रेम और विद्रोह की झलक आज भी स्पष्ट दिखाई देती है।

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