कामसूत्र: महिला यौन स्वायत्तता की प्राचीन परंपरा का भुला दिया गया स्त्रीवादी दृष्टिकोण

भारतीय समाज में महिलाओं की यौन इच्छाओं और आनंद को लेकर सदियों से चुप्पी रही है। पारंपरिक मूल्यों ने महिलाओं की इच्छाओं को दबा दिया, उन्हें ‘संस्कार’ के नाम पर चुप रहने की सीख दी गई। ऐसे में ‘कामसूत्र’ जैसे प्राचीन ग्रंथ की प्रासंगिकता आज के दौर में नई रोशनी के रूप में देखी जा सकती है।

आमतौर पर कामसूत्र को सिर्फ शारीरिक मुद्राओं तक सीमित कर दिया गया है। बाजारवाद ने इसे महज सुगंधित तेल, कंडोम ब्रांड या अश्लीलता से जोड़ दिया है। परंतु हकीकत में, कामसूत्र एक गूढ़ और गहन ग्रंथ है, जो न केवल प्रेम और सेक्स, बल्कि महिलाओं के अधिकार, सहमति और संबंधों में समानता की बात करता है।

स्त्री-संवेदना का प्राचीन स्वरूप

तीसरी शताब्दी में वात्स्यायन द्वारा रचित यह ग्रंथ संस्कृत में लिखा गया था। इसमें ‘काम’ का अर्थ केवल यौन संबंध नहीं, बल्कि प्रेम, आत्मिक आनंद और भावनात्मक जुड़ाव से है। ‘सूत्र’ का अर्थ है—दिशा-निर्देश देने वाला ग्रंथ। यह ग्रंथ स्त्री-पुरुष के बीच के संबंधों, सामाजिक नियमों, और पारस्परिक सम्मान पर आधारित संवाद का समर्थन करता है।

प्रसिद्ध विद्वान वेंडी डोनिगर के अनुसार, कामसूत्र स्त्रियों को केवल सहचरी नहीं बल्कि स्वायत्त व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है—जो अपनी इच्छा, शिक्षा और सुख की बात खुलकर कर सकती हैं।

ब्रिटिश अनुवाद ने बदल दिया भावार्थ

1883 में सर रिचर्ड बर्टन द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद ने कामसूत्र की मूल भावना को बिगाड़ कर प्रस्तुत किया। उन्होंने स्त्रियों की भूमिका को निष्क्रिय दर्शाया, जिससे यह ग्रंथ पश्चिमी नजरिए में महज पुरुष-केंद्रित बन गया। इसके विपरीत भारतीय विद्वान गणेश सैली और अन्य मानते हैं कि मूल कामसूत्र स्त्री की भूमिका को बराबरी की साझेदारी के रूप में दिखाता है—जहां वह अपनी इच्छा को इशारों, शब्दों और भावनाओं से व्यक्त करती हैं।

सहमति और संवाद है कामसूत्र का मूल तत्व

कामसूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि किसी भी यौन संबंध में महिला की सहमति आवश्यक है। प्रेम की शुरुआत संवाद से होती है—जहां दोनों पक्ष खुलकर अपनी भावनाओं को साझा करते हैं। यह ग्रंथ महिला की पसंद, नापसंद और सुख को प्राथमिकता देता है।

समाज में आज भी चुप्पी क्यों?

यौन विषयों पर काम करने वाली पत्रकार और सेक्स एजुकेटर लीज़ा मंगालदास बताती हैं कि भारतीय समाज में आज भी महिलाओं की इच्छाएं वर्जनाओं से घिरी हुई हैं। विवाह से पहले चुप्पी और शादी के बाद समर्पण की अपेक्षा, महिलाओं को खुद से कटे हुए जीवन में धकेल देती है। सामाजिक वैज्ञानिक दीपा नारायण कहती हैं कि घरों में बेटियों को यह सिखाया जाता है कि उन्हें अपनी देह से दूर रहना चाहिए, जबकि बेटों को स्वतंत्रता दी जाती है।

कामसूत्र में है स्त्री की स्वतंत्रता का संदेश

कामसूत्र में महिलाओं को फूलों की तरह दर्शाया गया है—जिन्हें स्नेह, ध्यान और सम्मान की आवश्यकता है। यह दृष्टिकोण आज के उस समाज से एकदम अलग है, जो महिलाओं की यौनिकता को शर्म और अपराधबोध से जोड़ता है।

‘कामसूत्र फेमिनिज्म’ की अवधारणा इसी आधार पर खड़ी होती है—जहां यह ग्रंथ महिलाओं की यौन स्वायत्तता को न केवल स्वीकार करता है, बल्कि उसे प्रोत्साहित भी करता है। यह कहता है कि सेक्स केवल संतानोत्पत्ति का साधन नहीं, बल्कि पारस्परिक सुख और भावनात्मक जुड़ाव का जरिया है।

आर्थिक स्वतंत्रता से जुड़ी है यौन स्वतंत्रता

कामसूत्र में महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता को भी उनकी यौन स्वायत्तता से जोड़ा गया है। जब महिला आत्मनिर्भर होती है, तो वह अपने संबंधों में भी निर्णय लेने की स्थिति में होती है। डोनिगर के शब्दों में, कामसूत्र महिलाओं को अपने साथी चुनने, इच्छाएं प्रकट करने और सुख प्राप्त करने की आजादी देता है।

पुनर्पाठ की आवश्यकता

आज जब समाज फिर से स्त्री अधिकारों और यौन शिक्षा पर बात कर रहा है, तो कामसूत्र का पुनर्पाठ समय की मांग है। यह ग्रंथ हमें याद दिलाता है कि महिला की इच्छा कोई अपराध नहीं, उसका अधिकार है।

कामसूत्र को केवल एक ‘अश्लील ग्रंथ’ मानना न केवल इसके इतिहास के साथ अन्याय है, बल्कि भारतीय संस्कृति में स्त्री की भूमिका को भी सीमित करना है। अगर हम इसके मूल संदेश को समझें, तो यह ग्रंथ एक क्रांतिकारी दस्तावेज बन सकता है—जो महिलाओं को उनकी आवाज, उनकी इच्छा और उनके सुख को पुनः पाने का अवसर देता है।

कामसूत्र को पुनः एक स्त्रीवादी ग्रंथ के रूप में पढ़ना जरूरी है—जो सहमति, संवाद, समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों पर टिका है। यह ग्रंथ हमें सिखाता है कि महिला का सुख विलासिता नहीं, उसका अधिकार है।

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *