एक वेब सीरीज़ की समीक्षा
हाल ही में रिलीज़ हुई एक वेब सीरीज़ ने दर्शकों के बीच खूब चर्चा बटोरी। पहले एपिसोड में ही शो ने उम्मीदें जगा दी थीं। एक रोमांचक अपराध कथा की शुरुआत हुई, जिससे लगा कि आगे रहस्य और गहराएगा। परंतु जैसे-जैसे एपिसोड आगे बढ़े, कहानी में न सस्पेंस बचा, न ही कोई कोर्ट रूम ड्रामा। बल्कि पूरी सीरीज़ सिर्फ एक किशोर आरोपी की मानसिक स्थिति को उकेरने में सिमट गई।
इसमें किशोरों पर सोशल मीडिया के दबाव, उनकी आभासी दुनिया में गुम होती वास्तविकता और संबंधों में बढ़ती खोखलाहट को दिखाने का प्रयास किया गया। यह विषय प्रासंगिक था, लेकिन सीरीज़ में पीड़िता के परिवार का कोई उल्लेख नहीं किया गया। यह आश्चर्यजनक था कि हत्या जैसे जघन्य अपराध पर केंद्रित कहानी में पीड़ित पक्ष का कोई प्रतिनिधित्व नहीं था। पूरा फोकस आरोपी किशोर की मनःस्थिति पर था, जिससे पीड़िता का अस्तित्व ही गौण हो गया।
समाज में अक्सर यह देखने को मिलता है कि अपराधी की मनोदशा और उसके भविष्य को लेकर सहानुभूति जताई जाती है, जबकि पीड़ित परिवार के दर्द को अनदेखा कर दिया जाता है। इस सीरीज़ में भी यही हुआ। एक किशोर को “इनसेल” कहे जाने या अस्वीकार किए जाने का इतना बड़ा परिणाम कैसे हो सकता है? स्कूलों में कितनी ही लड़कियां रोज़ अपमानित होती हैं, मोटी, काली या बदसूरत कहकर उनका मज़ाक उड़ाया जाता है, लेकिन वे हत्या पर नहीं उतरतीं।
सीरीज़ में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि क्या किशोरों को यह सिखाने की ज़रूरत नहीं है कि अस्वीकृति जीवन का हिस्सा है? कहीं कोई संवाद ऐसा नहीं था जहां आरोपी को यह बताया गया हो कि किसी लड़की का ‘ना’ कहना, उसके जीवन का अंत करने का अधिकार नहीं देता।
हालांकि, अभिनय के मामले में सीरीज़ ने प्रभाव छोड़ा। ओवेन कूपर ने कम उम्र में ही अपनी सशक्त अदाकारी से दर्शकों को चौंका दिया। विशेषकर तीसरे एपिसोड में उनका अभिनय बेहद प्रभावशाली था। स्टीफन ग्राहम ने पिता के किरदार में दर्शकों की आंखें नम कर दीं।
फिर भी, सीरीज़ अपने कथानक को पूरी तरह न्याय नहीं दे पाई। कोर्ट रूम ड्रामा, पीड़िता के परिवार की व्यथा और सामाजिक संदेश को अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता था। किशोरों की संवेदनशीलता और सोशल मीडिया के दुष्प्रभाव जैसे गंभीर मुद्दों को छूने का साहस दिखाने के बावजूद, सीरीज़ अपने अंजाम तक पहुंचने में विफल रही।
रिपोर्ट: निहाल देव दत्ता